Songtexte Swapna Jhare Phool Se - Mohammed Rafi
                                                स्वप्न 
                                                झरे 
                                                फूल 
                                                से, 
                                                मीत 
                                                चुभे 
                                                शूल 
                                                से
 
                                    
                                
                                                लुट 
                                                गये 
                                                सिंगार 
                                                सभी 
                                                बाग़ 
                                                के 
                                                बबूल 
                                                से
 
                                    
                                
                                                और 
                                                हम 
                                                खड़े-खड़े 
                                                बहार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                कारवाँ 
                                                गुज़र 
                                                गया 
                                                गुबार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                नींद 
                                                भी 
                                                खुली 
                                                    न 
                                                थी 
                                                कि 
                                                हाय 
                                                धूप 
                                                ढल 
                                                गई
 
                                    
                                
                                                पाँव 
                                                जब 
                                                तलक 
                                                उठे 
                                                कि 
                                                ज़िन्दगी 
                                                फिसल 
                                                गई
 
                                    
                                
                                                पात-पात 
                                                झर 
                                                गए 
                                                कि 
                                                शाख़-शाख़ 
                                                जल 
                                                गई
 
                                    
                                
                                                चाह 
                                                तो 
                                                निकल 
                                                सकी 
                                                    न 
                                                पर 
                                                उमर 
                                                निकल 
                                                गई
 
                                    
                                
                                                गीत 
                                                अश्क 
                                                बन 
                                                गए 
                                                छंद 
                                                हो 
                                                दफन 
                                                गए
 
                                    
                                
                                                साथ 
                                                के 
                                                सभी 
                                                दिऐ 
                                                धुआँ 
                                                पहन 
                                                पहन 
                                                गए
 
                                    
                                
                                                और 
                                                हम 
                                                झुके-झुके 
                                                मोड़ 
                                                पर 
                                                रुके-रुके
 
                                    
                                
                                                उम्र 
                                                के 
                                                चढ़ाव 
                                                का 
                                                उतार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                कारवाँ 
                                                गुज़र 
                                                गया 
                                                गुबार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                क्या 
                                                शबाब 
                                                था 
                                                कि 
                                                फूल-फूल 
                                                प्यार 
                                                कर 
                                                उठा
 
                                    
                                
                                                क्या 
                                                जमाल 
                                                था 
                                                कि 
                                                देख 
                                                आइना 
                                                मचल 
                                                उठा
 
                                    
                                
                                                इस 
                                                तरफ़ 
                                                जमीन 
                                                और 
                                                आसमाँ 
                                                उधर 
                                                उठा
 
                                    
                                
                                                थाम 
                                                कर 
                                                जिगर 
                                                उठा 
                                                कि 
                                                जो 
                                                मिला 
                                                नज़र 
                                                उठा
 
                                    
                                
                                                एक 
                                                दिन 
                                                मगर 
                                                यहाँ 
                                                ऐसी 
                                                कुछ 
                                                हवा 
                                                चली
 
                                    
                                
                                                लुट 
                                                गई 
                                                कली-कली 
                                                कि 
                                                घुट 
                                                गई 
                                                गली-गली
 
                                    
                                
                                                और 
                                                हम 
                                                लुटे-लुटे 
                                                वक्त 
                                                से 
                                                पिटे-पिटे
 
                                    
                                
                                                साँस 
                                                की 
                                                शराब 
                                                का 
                                                खुमार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                कारवाँ 
                                                गुज़र 
                                                गया 
                                                गुबार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                हाथ 
                                                थे 
                                                मिले 
                                                कि 
                                                जुल्फ 
                                                चाँद 
                                                की 
                                                सँवार 
                                                दूँ
 
                                    
                                
                                                होठ 
                                                थे 
                                                खुले 
                                                कि 
                                                हर 
                                                बहार 
                                                को 
                                                पुकार 
                                                दूँ
 
                                    
                                
                                                दर्द 
                                                था 
                                                दिया 
                                                गया 
                                                कि 
                                                हर 
                                                दुखी 
                                                को 
                                                प्यार 
                                                दूँ
 
                                    
                                
                                                और 
                                                साँस 
                                                यूँ 
                                                कि 
                                                स्वर्ग 
                                                भूमी 
                                                पर 
                                                उतार 
                                                दूँ
 
                                    
                                
                                                हो 
                                                सका 
                                                    न 
                                                कुछ 
                                                मगर 
                                                शाम 
                                                बन 
                                                गई 
                                                सहर
 
                                    
                                
                                                वह 
                                                उठी 
                                                लहर 
                                                कि 
                                                ढह 
                                                गये 
                                                किले 
                                                बिखर-बिखर
 
                                    
                                
                                                और 
                                                हम 
                                                डरे-डरे 
                                                नीर 
                                                नैन 
                                                में 
                                                भरे
 
                                    
                                
                                                ओढ़कर 
                                                कफ़न 
                                                पड़े 
                                                मज़ार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                कारवाँ 
                                                गुज़र 
                                                गया 
                                                गुबार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                माँग 
                                                भर 
                                                चली 
                                                कि 
                                                एक 
                                                जब 
                                                नई-नई 
                                                किरन
 
                                    
                                
                                                ढोलकें 
                                                धुमुक 
                                                उठीं 
                                                ठुमक 
                                                उठे 
                                                चरन-चरन
 
                                    
                                
                                                शोर 
                                                मच 
                                                गया 
                                                कि 
                                                लो 
                                                चली 
                                                दुल्हन 
                                                चली 
                                                दुल्हन
 
                                    
                                
                                                गाँव 
                                                सब 
                                                उमड़ 
                                                पड़ा 
                                                बहक 
                                                उठे 
                                                नयन-नयन
 
                                    
                                
                                                पर 
                                                तभी 
                                                ज़हर 
                                                भरी 
                                                गाज़ 
                                                एक 
                                                वह 
                                                गिरी
 
                                    
                                
                                                पुँछ 
                                                गया 
                                                सिंदूर 
                                                तार-तार 
                                                हुई 
                                                चूनरी
 
                                    
                                
                                                और 
                                                हम 
                                                अजान 
                                                से 
                                                दूर 
                                                के 
                                                मकान 
                                                से
 
                                    
                                
                                                पालकी 
                                                लिये 
                                                हुए 
                                                कहार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
                                
                                                कारवाँ 
                                                गुज़र 
                                                गया 
                                                गुबार 
                                                देखते 
                                                रहे।
 
                                    
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